गीता अध्याय 3 के श्लोक 1-2 में अर्जुन ने पूछा है कि हे जनार्दन! यदि आप कर्मों से बुद्धि (ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हो तो मुझे गुम राह किस लिए कर रहो हो? आप ठीक से सलाह दें जिससे मेरा कल्याण हो। आपकी बातों में विरोधाभास लग रहा है। आपकी ये दोतरफा (दोगली) बातें मुझे भ्रम में डाल रही हैं।
अध्याय 3 श्लोक 4 में निष्कर्मता का भावार्थ है कि जैसे किसी व्यक्ति ने एक एकड़ गेहूँ की पक्की हुई फसल काटनी है तो उसे काटना प्रारम्भ करके ही फसल काटने वाला कार्य पूरा किया जाएगा तब कार्य शेष नहीं रहेगा इस प्रकार कार्य पूरा होने से ही निष्कर्मता प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म प्रारम्भ करने से ही परमात्मा प्राप्ति रूपी कार्य पूरा होगा। फिर निष्कर्मता बनेगी। कोई कार्य शेष नहीं रहेगा। यदि भक्ति कर्म नहीं करेगें तो यह त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) बलपूर्वक अन्य व्यर्थ के कार्यों में लगाएगी। चूंकि स्वभाव वश माया (प्रकृति) से उत्पन्न तीनों गुण (रज-ब्रह्मा, सत-विष्णु, तम-शिव) जीव से जबरदस्ती कर्म करवाते हैं। जैसे जूआ खेलना, शराब आदि नशीली वस्तुओं का सेवन करना, चोरी-लूट, व्याभीचार करना, अधिक धन उपार्जन के अर्थ पाप करना जैसे मिलावट-धोखाधड़ी आदि कर्म जीव तीनों देवताओं से निकल रहे गुणों के प्रभाव से करता है। जब तक मानव (स्त्री-पुरूष) पूर्ण गुरू धारण नहीं करता, तब तक वह ऐसा होता है जैसे बिना खेवटिया (मल्लाह) की नौका जो हवा के झोंकों तथा पानी की लहरों व दरिया के बहाव से प्रभावित होकर इधर-उधर जाती है। भंवर में फँसकर नष्ट हो जाती है। पूर्ण सतगुरू की शरण में जब मानव (स्त्री-पुरूष) आ जाता है तो वह मल्लाह वाली नौका बन जाता है। सतगुरू रूपी मल्लाह जीव रूपी नौका को संसार सागर में इधर-उधर बहने (भटकने) नहीं देता। अपनी कुशलता से चलाकर दरिया के उस पार सकुशल पहुँचा देता है। जिनको पूर्ण गुरू नहीं मिला। वे जो मनमुखी भक्तजन (साधक) कर्म इन्द्रियों को हठ पूर्वक रोक कर एक स्थान पर भजन पर बैठते हैं तो उनका मन ज्ञान इन्द्रियों के प्रभाव से प्रभावी रहता है। वे लोग दिखावा आडम्बर वश समाधिस्थ दिखाई देते हैं। वे पाखण्डी हैं अर्थात् कर्म त्याग से भजन नहीं बनता। करने योग्य कर्म करता रहे तथा ज्ञान से मन व इन्द्रियों को अच्छे कर्मों में संलग्न रखे। शास्त्रों में वर्णित विधि से करने योग्य कर्म करना श्रेष्ठ है यदि सांसारिक कर्म नहीं करेगा तो तेरा निर्वाह (परिवार पोषण) कैसे होगा?
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 9 तक एक स्थान पर एकान्त में विशेष आसन पर बैठ कर कान-आँखें आदि बंद करके हठयोग करने की मनाही की है तथा शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है। प्रत्येक सद्ग्रन्थों में सांसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने का भक्ति विधान बताया है।
प्रमाण:- पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्र ओं (ॐ) अक्षर है जो इसका जाप अन्तिम श्वांस तक कर्म करते-करते भी करता है वह मेरे वाली परमगति को प्राप्त होता है।
अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि हर समय मेरा स्मरण भी कर तथा युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते हुए अर्थात् सांसारिक कर्म करते-करते साधना करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। भले ही अपनी परमगति को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अति अश्रेष्ठ अर्थात् अति व्यर्थ बताया है, परंतु ब्रह्म साधना की विधि यही है।
फिर अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 तक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है, उस परमात्मा अर्थात् पूर्णब्रह्म की भक्ति करो, जिसका विवरण गीता अध्याय 8 श्लोक 8-10 में तथा अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 1 व 4 तथा 17 में दिया है। उसका भी यही विधान है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की साधना तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करता हुआ तथा सांसारिक कार्य करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् पूर्ण परमात्मा को ही प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत का संकेत गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में दिया है। तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में है यही प्रमाण पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 तथा 13 में दिया है।
पवित्र वेदों को बोलने वाले ब्रह्म ने कहा कि पूर्ण परमात्मा के विषय में कोई तो कहता है कि वह अवतार रूप में उत्पन्न होता है अर्थात् आकार में कहा जाता है, कोई उसे कभी अवतार रूप में आकार में उत्पन्न न होने वाला अर्थात् निराकार कहता है। उस पूर्ण परमात्मा का तत्वज्ञान तो धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संत ही बताऐंगे कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा का शरीर कैसा है? वह कैसे प्रकट होता है? पूर्ण परमात्मा की पूरी जानकारी धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संतों से सुनों। मैं वेद ज्ञान देने वाला ब्रह्म भी नहीं जानता। फिर भी अपनी भक्ति विधि को बताते हुए अध्याय 40 मंत्र 15 में कहा है कि मेरी साधना ओ3म् (ॐ) नाम का जाप कार्य करते-करते कर, विशेष आस्था के साथ सुमरण कर तथा मनुष्य जीवन का मुख्य कत्र्तव्य जान कर सुमरण कर, इससे मृत्यु उपरान्त अर्थात् शरीर छूटने पर मेरे वाला अमरत्व अर्थात् परमगति को प्राप्त हो जाएगा। जैसे सूक्ष्म शरीर में कुछ शक्ति आ जाती है, कुछ समय तक अमर हो जाता है। जिस कारण स्वर्ग या महास्वर्ग यानि ब्रह्मलोक में चला जाता है। पुनः जन्म-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है कि प्रजापति ने कल्प के प्रारम्भ में कहा था कि सब प्रजा यज्ञ करें। इससे तुम्हें सांसारिक भोग प्राप्त होंगे, न कि मुक्ति। इसका जीवित प्रमाण है कि यज्ञों से सांसारिक भोगों व स्वर्ग प्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं। क्ष्यज्ञ भी आवश्यक हैं जैसे गेहूँ का बीज जमीन में बीजने के पश्चात् उसको सिंचाई के लिए जल तथा पोषण के लिए खाद की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार परमात्मा की भक्ति के लिए नाम मंत्र रूपी बीज आत्मा में डालने के पश्चात् उसमें यज्ञों (पाँचों यज्ञों = धर्म यज्ञ, हवन यज्ञ, ध्यान यज्ञ, प्रणाम यज्ञ, ज्ञान यज्ञ) रूपी जल व खाद की आवश्यकता होती है। परंतु पूर्ण गुरु से नाम ले कर गुरु मर्यादा में रहते हुए अंतिम समय तक अनन्य मन से नाम जाप (अभ्यास योग) करता रहे वह साधक अंत में अपने इष्ट लोक में चला जाता है तथा जब तक संसार में रहता है, उसको यज्ञों के फल रूप में संसारिक सुविधाऐं भी अधिक मिलती रहती हैं। वही यज्ञों में प्रतिष्ठित इष्ट (पूर्ण परमात्मा) ही मन इच्छित यज्ञों का फल देता है। प्रमाण के लिए गीता जी के अध्याय 3 के श्लोक 14-15 में देखें। अध्याय 3 के श्लोक 11 में कहा है कि देवता यज्ञ से उन्नत होकर आप को उन्नत करें अर्थात् धनवान बनाएगें। इस प्रकार एक दूसरे का सहयोग रखो।
अध्याय 3 का श्लोक 10
सहयज्ञाः, प्रजाः, सृष्टा, पुरा, उवाच, प्रजापतिः,
अनेन, प्रसविष्यध्वम्, एषः, वः, अस्तु, इष्टकामधुक्।।10।।
अनुवाद: (प्रजापतिः) प्रजापति यानि कुल के मालिक ने (पुरा) कल्पके आदिमें (सहयज्ञाः) यज्ञसहित (प्रजाः) प्रजाओंको (सृष्टा) रचकर उनसे (उवाच) कहा कि (अनेन) अन्न द्वारा होने वाला धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं, जिसमें भोजन-भण्डारे यानि लंगर करना है, इस यज्ञ के द्वारा (प्रसविष्यध्वम्) वृद्धि को प्राप्त होओ और (वः) तुम साधकों को (एषः) यह पूर्ण परमात्मा (इष्टकामधुक्) यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट ही इच्छित भोग प्रदान करनेवाला (अस्तु) हो। (3:10)
भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों का ज्ञान तथा प्रजा को उत्पन्न करके उनसे कहा था कि अन्न द्वारा होने वाले धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं जिसमें भोजन-भण्डारा यानि लंगर करना। इस यज्ञ के द्वारा बुद्धि को प्राप्त होओ यानि धर्म करने से धन प्राप्त होता है। तुम साधकों को यज्ञ में पूज्य इष्ट देव ही मनवांछित भोग प्रदान करे। यानि धन चाहिए तो दान धर्म कर, मुक्ति चाहिए तो ‘‘भज सतनाम’’ वाले सिद्धांत अनुसार पूर्ण परमात्मा साधक को लाभ देता है, उसे प्राप्त करो।(3ध्10)
अध्याय 3 का श्लोक 11
देवान्, भावयत, अनेन, ते, देवाः, भावयन्तु, वः,
परस्परम् भावयन्तः, श्रेयः, परम्, अवाप्स्यथ।।11।।
हिन्दी अनुवाद:- यज्ञ के द्वारा देवताओं अर्थात् संसार रूपी पौधे की शाखाओं को उन्नत करो और वे देवता अर्थात् शाखाऐं तुम लोगों को उन्नत करें यानि पौधा पेड़ बनेगा। शाखाऐं फल देंगी। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करके परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।(3:11)
नोट:- इस ज्ञान को समझने के लिए कृपा देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ 42 पर संसार रूपी पौधे का चित्र। चित्रों के द्वारा गीता अध्याय 3 के श्लोक 10-15 तक को समझना सरल हो जाएगा।
विशेष:- गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में वर्णित उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष है, उस की जड़ (मूल) तो पूर्ण परमात्मा है तथा तना परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष है तथा डार क्षर पुरुष (ब्रह्म) है व तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी रूपी शाखायें हैं। वृक्ष को मूल(जड़) से ही खुराक अर्थात् आहार प्राप्त होता है। जैसे हम आम का पौधा लगायेंगे तो मूल को सीचेंगे, जड़ से खुराक तना में जायेगी, तना से मोटी डार में, डार से शाखाओं में जायेगी, फिर उन शाखाओं को फल लगेंगे, फिर वह टहनियां अपने आप फल देंगी। इसी प्रकार पूर्णब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म रूपी मूल की पूजा अर्थात् सिंचाई करने से अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म रूपी तना में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी, फिर अक्षर पुरुष से क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म रूपी डार में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर ब्रह्म से तीनों गुण अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी रूपी तीनों शाखाओं में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर इन तीनों देवताओं रूपी टहनियों को फल लगेंगे अर्थात् फिर तीनों प्रभु श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी हमें संस्कार आधार पर ही कर्म फल देते हैं। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16 व 17 में भी है कि दो प्रभु इस पृथ्वी लोक में हैं, एक क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, दूसरा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म। ये दोनों प्रभु तथा इनके लोक में सर्व प्राणी तो नाशवान हैं, वास्तव में अविनाशी तथा तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करने वाला परमेश्वर परमात्मा तो उपरोक्त दोनों भगवानों से भिन्न है।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 12 का हिन्दी अनुवाद:- यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम साधकों को इच्छित भोग यानि सुख पदार्थ बिना माँगे निश्चय ही देते रहेंगे। भावार्थ है कि भक्ति रूपी पौधे के मूल की सिंचाई करके पेड़ बना लेते हैं। शाखाऐं बढ़ जाती हैं। उन शाखाओं को अपने-आप फल लगते हैं। बिना माँगे ही सेवक को फल देते हैं। इस प्रकार पूर्ण परमात्मा रूपी मूल यानि जड़ की ईष्ट रूप में प्रतिष्ठित करके पूजा करने वाले के शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्मों का फल तीनों देवता (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव) ही बिना माँगे देते रहते हैं। जो धन कर्मानुसार मानव को मिला है, यदि उसमें से दान-धर्म नहीं करते यानि देवताओं को नहीं बढ़ाते यानि मूल मालिक को ईष्ट देव रूप में प्रतिष्ठित करके दान नहीं देते, अपितु स्वयं ही भोगते हैं। वह तो परमात्मा का चोर है। (3:12)
गीता अध्याय 3 श्लोक 13 का अनुवाद:- जैसे गीता अध्याय 3 के श्लोक 12 में कहा है कि यज्ञ (शास्त्रविधि से किए धार्मिक अनुष्ठान) से पुष्ट(इष्ट) देवता आपको सांसारिक सुविधा कर्मफल के आधार पर देते हैं। फिर जो उसका कुछ अंश धर्म में नहीं लगाते अर्थात् जो धर्म यज्ञ आदि नहीं करते वे (संविधान तोड़े हुए हैं) पापी हैं, चोर हैं। गीता अध्याय 3 के श्लोक 13 में वर्णन है कि यज्ञ में प्रतिष्ठित (पूर्ण परमात्मा) इष्टदेव को भोग लगाकर फिर भण्डारा करें। वे साधक यज्ञ के द्वारा होने वाले लाभ को प्राप्त हो जाएंगे। ख्सर्व पापों से मुक्त होने का अभिप्राय यह है कि जो यज्ञ नहीं करते वे पापी कहे हैं और जो शास्त्र विधि के अनुसार (मतानुसार) यज्ञ करते हैं वे उन सर्व पापों से बच जाते हैं जो यज्ञ न करने से लगने थे, यदि कोई यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान नहीं करता, वह तो चोर बताया है। प्रतिदिन या सत्संग के समय भोजन प्रसाद बनता है। सर्व प्रथम कुछ भोजन अलग निकाल कर पूर्ण परमात्मा को भोग लगाया जाना चाहिए। उसके पश्चात् शेष भोजन भण्डारा वितरित किया जाना चाहिए। प्रभु के भोग से बचा शेष भोजन व प्रसाद खाने वाले के कुछ पाप विनाश हो जाते हैं। इस प्रकार पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके उसके बताए अनुसार सर्व भक्ति कार्य करने से साधक पूर्ण मुक्त हो जाता है।